Biography of Tatya Tope in Hindi
सितंबर 11, 2021
भारत पर अंग्रेजों ने कई वर्षों तक राज किया परंतु हमारे भारत देश पर कब्जा करना अंग्रेजों के लिए इतना आसान नहीं था। अंग्रेजों को हमारे भारत देश पर कब्जा करने के दौरान अनेक कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ा। जब ब्रिटिश हुकूमत ने भारत देश में अपने पैर पसारने की कोशिश करना शुरू किया था तब उस समय भारत देश के कई स्वतंत्रता सेनानियों और महान राजाओं ने उनको तगड़ी टक्कर दी थी। हालांकि इन सबके बावजूद भी ब्रिटिश हुकूमत अपना शासन स्थापित करने में सफल रहे। वहीं अंग्रेजों के चंगुल से भारत देश को निकालने के लिए वर्ष 1857 में भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ। इस स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अनेक राज्यों के राजाओं ने ब्रिटिश हुकूमत का सामना किया था। वहीं इस स्वतंत्रता संग्राम को सफल बनाने के लिए तात्या टोपे, मंगल पांडे, रानी लक्ष्मीबाई जैसे लोगों ने अपनी सारी ताकत लगा दी थी परंतु उस समय भारत के विभिन्न राज्यों के राजाओं में एकता ना होने के कारण अंग्रेजों की जीत हुई। आज भी जब स्वतंत्रता संग्राम का जिक्र होता है तो तात्या टोपे का नाम जरूर लिया जाता है। तात्या टोपे ने ना सिर्फ अंग्रेजों की नाक में दम करके रखा था बल्कि उन्होंने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और अनेक राजाओं की सहायता भी की थी।
करियर गुरु के इस लेख के माध्यम से आज हम जानेंगे स्वतंत्रता सेनानी तात्या टोपे के जीवन से जुड़े कुछ अनछुए पहलुओं के बारे में -
प्रारंभिक जीवन -
भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी तात्या टोपे का जन्म 1814 ई. में महाराष्ट्र राज्य के एक छोटे से गांव येवला में हुआ था। तात्या टोपे का वास्तविक नाम "रामचंद्र पांडुरंग येवलकर" था। इनके पिता का नाम "पाण्डुरंग त्र्यम्बक भट्ट" बताया जाता है। भट्ट पेशवा बाजीराव द्वितीय के ग्रह-सभा के कार्यों को संभालते थे। तात्या टोपे की माता का नाम "रुक्मिणी बाई" था और वह एक ग्रहणी थी।
भारत में अंग्रेजों ने कब्जा करने के मकसद से उस समय के कई राजाओं से अनेक राज्य छीन लिए थे। अंग्रेजों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय से भी उनका राज्य छीनने की कोशिश की परंतु उन्होंने अंग्रेजों के सामने घुटने टेकने की जगह उनसे युद्ध लड़ना उचित समझा। परंतु इस युद्ध में पेशवा की हार हुई और अंग्रेजों ने उनसे उनका राज्य छीन लिया। अंग्रेजों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय को उनके राज्य से निकाल दिया और कानपुर के बिठूर गांव में भेज दिया।
बिठूर गांव में जाकर बाजीराव द्वितीय ने अपना सारा समय पूजा पाठ में लगा दिया। वहीं तात्या टोपे के पिता भी अपने पूरे परिवार के साथ बिठूर में जाकर रहने लगे। जब तात्या टोपे के पिता उनको बिठूर गांव लेकर गए थे तब तात्या की उम्र महज 4 वर्ष थी। बिठूर गांव में ही तात्या टोपे ने युद्ध करने की ट्रेनिंग ली। बाजीराव द्वितीय के गोद लिए पुत्र नानासाहेब के साथ तात्या टोपे के संबंध काफी अच्छे थे और इन दोनों ने साथ में शिक्षा भी ग्रहण की।
"तात्या टोपे" नाम कैसे पड़ा -
तात्या टोपे जब बड़े हुए तब पेशवा ने उन्हें अपने यहां बतौर मुंशी रख लिया था। मुंशी बनने से पहले तात्या टोपे ने कई जगहों पर नौकरी की थी परंतु वहां पर उनका मन नहीं लगा। जिसके बाद पेशवा जी ने उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी थी। वहीं इस पद को तात्या टोपे ने बखूबी से संभाला और उन्होंने अपने राज्य के एक भ्रष्टाचार कर्मचारी को भी पकड़ा। तात्या टोपे के इस महान कार्य से खुश होकर पेशवा ने उन्हें अपनी एक टोपी देकर सम्मानित किया और इस टोपी के कारण उनका नाम तात्या टोपे पड़ गया। वहीं उन्हें रामचंद्र पांडुरंग की जगह "तात्या टोपे" कहा जाने लगा। कहा जाता है कि पेशवा द्वारा दी गई टोपी में कई तरह के हीरे जड़े हुए थे।
वर्ष 1857 के विद्रोह में तात्या टोपे की भूमिका -
पेशवा को हर साल अंग्रेजों द्वारा 8 लाख रुपए पेंशन के रूप में दिए जाते थे लेकिन जब पेशवा की मृत्यु हो गई तब अंग्रेजों ने उनके परिवार को पेंशन देना बंद कर दिया। इतना ही नहीं बल्कि अंग्रेजों ने पेशवा के गोद लिए पुत्र नाना साहब को उनका उत्तराधिकारी मानने से भी मना कर दिया। वहीं अंग्रेजों के इस निर्णय से नाना साहब और तात्या टोपे काफी नाराज थे और यहां से ही उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ रणनीति बनाना प्रारंभ कर दिया।
वर्ष 1857 में, जब भारत देश में स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ तब नाना साहब और तात्या टोपे ने इस संग्राम में हिस्सा लिया। नाना साहब ने तात्या को अपनी सेना की जिम्मेदारी देते हुए उनको अपनी सेना का सलाहकार बना दिया। वहीं अंग्रेजों ने वर्ष 1857 में कानपुर पर हमला कर दिया और ये हमला ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की नेतागिरी में किया गया था। नाना साहब लंबे समय तक अंग्रेजों से सामना नहीं कर पाए और उनकी हार हो गई। नाना साहब ने कुछ समय बाद कानपुर छोड़ दिया और अपने परिवार के साथ नेपाल जाकर रहने लगे। ऐसा कहा जाता है कि नेपाल में ही नाना साहब ने अपनी अंतिम सांस ली थी।
वहीं अंग्रेजों के साथ हुए युद्ध में पराजय मिलने के बाद भी तात्या टोपे ने हार नहीं मानी। तात्या टोपे ने अपनी खुद की एक सेना का गठन किया। तात्या ने अपनी सेना की सहायता से कानपुर को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाने के लिए रणनीति बनाई। लेकिन हैवलॉक ने अपनी सेना की सहायता से बिठूर में भी धावा बोल दिया। इस हमले में तात्या टोपे की एक बार फिर हार हुई लेकिन तात्या अंग्रेजों के पकड़ में नहीं आए और वहां से भागने में सफल रहे।
तात्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई -
वर्ष 1887 में, अंग्रेजो के खिलाफ हुए विद्रोह में रानी लक्ष्मीबाई ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और ब्रिटिश हुकूमत इस विद्रोह से जुड़े हर व्यक्ति को चुप कराना चाहते थे। वर्ष 1887 में सर ह्यूरोज की नेतागिरी में ब्रिटिश सेना ने झांसी पर हमला कर दिया। जब तात्या टोपे को इस बात का पता चला तब उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई की मदद करने का फैसला लिया। तात्या टोपे ने अपनी सेना के साथ मिलकर अंग्रेजों का मुकाबला किया और रानी लक्ष्मीबाई को ब्रिटिश हुकूमत के चंगुल से बचा लिया। इस युद्ध में जीतने के बाद रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे कालपी चले गए।
कालपी जाकर इन्होंने ब्रिटिश हुकूमत से लड़ने के लिए आगे की रणनीति तैयार की। तात्या टोपे यह जानते थे कि अंग्रेजों को हराने के लिए अपनी सेना को और मजबूत करना होगा। अंग्रेजों का सामना करने के लिए तात्या टोपे ने महाराजा जयाजी राव सिंधिया के साथ हाथ मिला लिया। जिसके बाद इन दोनों ने मिलकर ग्वालियर के प्रसिद्ध किले पर अपना अधिकार जमा लिया। तात्या टोपे के इस कदम से ब्रिटिश हुकूमत को काफी धक्का लगा और अंग्रेजों ने तात्या टोपे को पकड़ने में अपनी कोशिशों को और तेज कर दिया।
तात्या टोपे का संघर्ष -
ब्रिटिश हुकूमत ने अपने खिलाफ शुरू हुए हर एक विद्रोह को लगभग खत्म कर दिया था परंतु तात्या टोपे अंग्रेजों की पकड़ में नहीं आए। ब्रिटिश हुकूमत तात्या टोपे को पकड़ने की काफी कोशिशें करती रही परंतु तात्या टोपे अपना ठिकाना समय-समय पर बदलते रहे।
तात्या टोपे की मृत्यु -
तात्या टोपे जैसे महान और चालाक व्यक्ति को पकड़ना इतना आसान नहीं था। तात्या टोपे ने काफी लंबे समय तक ब्रिटिश हुकूमत को परेशान किया। तात्या टोपे की मृत्यु को लेकर दो बातें कहीं जाती हैं। कई इतिहासकारों का मानना है कि तात्या टोपे को फांसी दी गई थी, वहीं कई पुराने सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक तात्या टोपे को फांसी नहीं दी गई थी। वहीं ये भी कहा जाता है कि तात्या टोपे कभी भी ब्रिटिश हुकूमत के पकड़ में नहीं आए और उन्होंने अपनी अंतिम सांस गुजरात राज्य में वर्ष 1909 में ली थी।